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Thursday, March 28, 2024

280324 मंडी - 1

मंडी - 1


         हिमाचल की मण्डी की लोकसभा सीट तो कुछ विशेष चर्चा में रही। एक तो ऐसी अकल्पनीय घोषणा बीजेपी ने की और दूसरी सुप्रियाजी के अकाउंट से टिप्पणी की गई। बस फिर तो वाद-विवाद का सिलसिला शुरू हो गया। पत्रकारों का तो काम है अपनी पोस्ट को रूचिकर और चटपटा बनाना लेकिन हमारी अपनी सोच इतनी संकीर्ण क्यों है कि हम घृणित अर्थ पहले निकालते हैं या फिर सिर्फ घृणित अर्थ ही निकालते हैं। 
     एक साधारण सा उदाहरण देखिये। मंडी शब्द का अर्थ है बाजार। क्या आप रोज के बाजार के भाव (शेयर मार्केट के) या फिर मंडी के भाव (कोमोडिटीस् के) नहीं तलाशते हैं? प्रधानमंत्री स्वयं इनमें रूचि रखते हैं क्योंकि देश की आर्थिक स्थिति का आँकड़ा है।
      दूसरा उदाहरण देखिये। आप कौन से व्यापार में शामिल हैं - फल-सब्जी व्यापार, गन्ना व्यापार, दूध व्यापार, लोहा-तांबा व्यापार, दुकानदारी का व्यापार, फैक्ट्री व्यापार, मालवाहक व्यापार, सर्विस इंडस्ट्रीज व्यापार, ऋण सेवा व्यापार, शो बिज व्यापार, देह व्यापार, वैश्या व्यापार, गुलाम व्यापार, इत्यादि? अब आँकलन तो हमें ही करना है कि कौन सा व्यापार सही है और कौन सा गलत। तो जब नारी देह प्रदर्शन करती है तो उसे सही कहेंगे या गलत। आजादी और तरक्की के नाम पर देह-प्रदर्शन वाला फैशन अपनाना सही कहेंगे या गलत? नारी की आजादी के नाम पर घर-परिवार ताक पर रखकर अपनी राह चलना सही कहेंगे या गलत? तो पत्रकारिता हो या नारी, अपनी राह चलने के आजाद हैं और अपनी घृणित सोच को विस्तृत करना हमारी जरूरत है।
      तीसरा उदाहरण देखिये। हम आज के जमाने में कायदे कानून से चलते हैं, अपने समाज की और अपने ईमान-धर्म की डींग हाँकते हैं। लेकिन क्या हमारे समाज में दाग व्यापार, दहेज व्यापार, देह व्यापार, वैश्या व्यापार, गुलाम व्यापार, इत्यादि नहीं हो रहे हैं? क्या हम देख कर भी उसको अनदेखा करते हैं? क्या हम उसे धर्म और न्याय का नतीजा मानकर स्वीकार कर लेते हैं? क्या धर्म और न्याय दूसरे के पक्ष में होने पर ऐसे लोग अपनी गलती स्वीकार करते हैं? क्या अपनी गलती का धर्म और न्याय भुगतने के लिए तैयार हो जाते हैं? या फिर हम डींग हाँकने में ही धर्म-कर्म मनाते हैं ?
       चौथा उदाहरण देखिये। कंगनाजी की एक फोटो कुछ ज्यादा ही प्रदर्शित रही। इसमे वो अर्धनग्न टाॅप में सिर पर जुडी बाँधे हुए हैं। क्या भारत के मुनियों और स्वयं बाबा भोले शंकर से इसका कोई प्रतिरूपात्मक संबंध नहीं बनता है? अंग्रेजी में कहावत है - एक पिक्चर हजार शब्दों के बराबर है। तो फिर चुनाव के समय "मंडी से ऐसी पिक्चर" क्या बोध कराएगी? क्या चुनाव आयोग इन हजार शब्दों और उनके विचारों की सत्यता का आँकलन स्पष्ट रूप से देश की जनता के सामने रखने का निर्देश देंगे ताकि जनता को भ्रमित न किया जाए और गलत विचारों के खिलाफ एक्शन लिया जाए।
       सब कहने के बाद, अंत में मैं तो यही कहूंगा कि स्वराज तो पूरे भारत का होता, तो स्वराज तो पूरे भारत का चाहिए और बाहरी लोग बाहर होने चाहिए। (उसके बाद तो बाबा भोले शंकर का शिव लोक ही बनेगा)। तो फोकट का इंतजार चलाओ - अपने हक का, अपने कमाए हुए धन का, अपने बंधुओं का, अपने सुकर्मों का, .....  IPYadav

Tuesday, March 19, 2024

19032024 अब चुनावी शक्ति साधना

अब चुनावी शक्ति साधना

 
        तो अब शुरू हो गई चुनावी शक्ति साधना। 
       राहुल गांधीजी ने अपने श्रोताओं को हिन्दू धर्म में उल्लेखित शक्ति शब्द का प्रयोग करके अपने फाॅलोवर्स को ज्ञान बांटने की कोशिश की। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि उनका मुकाबला कुछ ऐसी शक्तियों से है। ये ईविएम, ईडी, सीबीआई इत्यादि में है और प्रधानमंत्री की आत्मा से संचालित होती हैं। परन्तु शायद वो आधार कार्ड, पैन कार्ड और उनका नागरिकता से संबंध भूल गए! कैसे? यह विषय आगे विस्तृत है।
       अब बात करें प्रतिपक्ष की शक्ति साधना की। तो मोदीजी ने छूटते ही उसे लपक लिया। क्या वे राहुलजी का ज्ञान लेकर उसका  स्व-आकलन कर रहे थे या फिर वे आम आदमी को पथभ्रष्ट होने से रोकने का सुकर्म किया  करते हैं। यदि यह स्व-आकलन है तो वे प्रतिपक्ष के नेता कैसे, और यदि यह सुकर्म है तो 45 साल से आम आदमी निर्दिशा क्यों भटकते रहे। क्यों आज भी इतने सालों से हो रहे 'सही और सहमति वाले काम' से  संबंधित  ज्ञानोदय से उत्साहित और प्रेरित होकर एकत्रित होते हैं और प्रदर्शन करते हैं? क्या मोदीजी, भाजपा और अन्य पार्टियां अपने-अपने सुकर्म में विफल रहीं? क्या सभी कुछ अनाधिकारी और धृष्ट व्यक्तियों के कठपुतली डोलते है और उनके कुकृत्यों को बढाते और चलाते हैं?
        शायद इसीलिए सभी आम जनता भारतमाता स्वरूप माँ शक्ति से आस लगाये हुए हैं कि माँ शक्ति असुर शक्तियों का दमन करके अच्छे दिन लाएगी। क्या करे बिचारी जनता। एक पक्ष दश साल सत्तारूढ़ होकर भी सुकर्म में विफल है तो क्या पक्ष असुर शक्ति है या सरकारी तंत्र। दूसरा पक्ष शायद  बहुमत समर्थ है लेकिन सरकारी तंत्र की 'पहले' पक्ष की (मोदीजी की) शक्तियों से बाधित है। तो क्या हमारी पहले पक्ष की और मोदीजी के सुकर्मों की धारना गलत है? आप स्वयं सोचो!
       जहाँ तक भारत की आत्मा और सरकारी तंत्र की आत्मा का सवाल है तो वो अब भी मूल भारतवासी ही है। इतने सालों के दमन, उत्पीड़न, पलायन, बेरोजगारी, अवमानना और अधिकारों के हनन के पश्चात भी जनता माँ शक्ति से आस लगाती है। क्योंकि धर्म (न्याय) की बिसात पर धृष्टता के महलों वाले भी ढेर हो जाते हैं और माँ शक्ति उस ज्ञान की जननी है जिसपर धर्म आश्रित है। लेकिन पथभ्रष्ट करने वाले शायद अपने अंधकार युग का अंत ही नहीं करना चाहते। इसीलिए तो ज्ञानोदय का भरपूर विरोध और बिगाड़ करने बाद अब शायद ज्ञानोदय को रोकने की बजाय ज्ञानोदय को अपना कारनामा बनाने की कोशिश करने लगे हैं।
        ज्ञान की बात करें तो सोचो - देश के भावी नेताओं के चयन का समय है। कहीं राहुल गाँधीजी और मोदीजी के विचारों का आंकलन हो रहा है तो कहीं अलग-अलग सीडी के प्रचार। मुख्य चुनाव आयुक्त - राजीव कुमार, सह चुनाव आयुक्त - ज्ञानेश्वर (ज्ञान-ईश्वर) कुमार और (साड्डे सिंग सा'ब) सुखबीर सिंह। न्याय की सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता का केन्द्र - SBI, आज का मुख्य मुद्दा - नागरिकता का अधिकार, नागरिक का आईडी - आधार, आधार का मैनेजमेंट - ??? शायद  ईडी,  सीबीआई, पुलिस, कुछ विशेष व्यक्ति ( 'सही और सहमति वाले काम' बताने वाले व्यक्ति!?), कुछ विदेशी (और विदेशी ताकतें)। क्या 45 साल से इन्हें KEY का ज्ञान था? इनके अब क्या विचार हैं? क्या ये  Numero Uno (नम्बर  एक) की विचारधारा को नहीं मानते? क्या ये KEY से छोटे होकर बैठने के बजाय अपने आप को ज्ञानोदय का राज निकाल लाने वाला सुकर्मी बतलाकर शीर्ष पर बैठने की धृष्टता तो नहीं कर रहे? आप सुराज के नागरिक हैं (!?) और आपको  सजग होना है। आधार लिंक करके अब पैन कार्ड और बैंक अकाउंट्स भी इसकी पहुँच में हैं। तो अब सिर्फ नेता ही नही अपितु हरेक नागरिक इससे भयभीत होकर इनके साथ एकसूत्र में फँस जाएँगे। यह तो राजाधिकार होते हैं। तो फिर राज किसके हाथ में है? अब फिर सवाल उठता है कि स्वराज का क्या हुआ? स्वराज के षडयंत्रकारी कौन हैं? क्यों हैं? _ _ _ (शेष फिर कहीं)     IPYadav

Wednesday, March 6, 2024

05032024 भ्रमित परिवारवाद

भ्रमित परिवारवाद 

        कई विषयों पर हमारे नेता ही जनता को भ्रमित करने लग जाते हैं और परिवारवाद एक ऐसा ही विषय है। परिवारवाद मानव सभ्यता का एक अभिन्न अंग है। जब से मानव सभ्यता विकसित हुई है, परिवारवाद ही चलाया गया है। और बड़े बड़े महापुरुष तो इसी का अनुसरण करते हैं, चाहे वो किसी भी क्षेत्र में उपलब्धि प्राप्त करते हों। क्योंकि उनके कर्मों का उपभोग उनकी संतानों का ही अधिकार होता है। और अगले जन्म में वे स्वयं उसी कुल में जन्म लेकर अपने और अपने कुल के कर्मों का फल प्राप्त करते हैं। 
         क्या प्रधानमंत्री मोदीजी और उनके सहयोगी इस बात से अवगत नहीं हैं? तो कैसे हिन्दू हैं वे? 
       इसी प्रकार राजाओं का हक उनके युवराज को मिलता है और राजपरिवार का साथ देना, देश की और राजपरिवार की रक्षा करना हरेक नागरिक का धर्म और कर्म होता है। और स्वराज के हकदार राजपरिवार के सामने तो शत्रु भी स्वयं परास्त होता है तो राजद्रोहियों की क्या बिसात। बेईमान तो पूरी दुनिया में तुच्छ ही होते हैं। हो सकता है उन्हें गुप्त तरीके से विदेशी संरक्षण और धन मिलने लगे लेकिन बेईमान क्या उनकी वफादारी में जुर्म कबूल करके सजा भुगतने और नुकसान भरने के लिए समर्पित होगा? 
     इसलिए, मान-सम्मान उन्ही लोगों का है जो अपने राजा के राजभक्त हों। और दूसरों को उजाड़ने वाले उनके राजा और राजवंश को उजाड़ते हैं इसलिए परिवारवाद का विरोध करते हैं। क्या कृष्ण के मद में हम अभिमन्यु की अवहेलना कर सकते हैं? और क्या जब शत्रु भी परास्त हो जाए, राजद्रोह के लिए कोई तुक बनती है? या तुकबंदी करके जनता को भ्रमित करने की कलाकारी कोई सद्गुण कहा जाए? 
     इसी प्रकार आज के नेता भी धर्म-कर्म कमाकर अपनी संतान को सौंपते हैं तो क्या बुरा है? उसमें सफलता-असफलता जनता के हाथ की बात होती है। उसके लिए भ्रमित नहीं अपितु सजग जनता का विकास करना होता है। और यह कार्य पार्टी वाले नहीं अपितु मूल देशवासी ही कर सकते हैं। बाहरी लोग तो राजवंश नष्ट करने की साजिश कर सकते हैं!  IPYadav

Sunday, March 3, 2024

02032024 - मेरी मेहनत के रंग

मेरी मेहनत के रंग


        आज बीजेपी (political party) ने अगले लोकसभा चुनाव के लिए अपने उम्मीदवारों की पहली सूची जारी की। वैसे  तो उसमें सोच-विचार करने की कई बातें हैं लेकिन मेरे संदर्भ में (शायद) एक महत्वपूर्ण बात रही। कम से कम यही मेरा अनुमान है। क्योंकि:-
        070224 को मैंने एक पोस्ट प्रकाशित की थी जिसमें मैंने प्रधानमंत्री मोदीजी को संबोधित करते हुए एक सवाल किया था कि स्वराज के विषय में उनके क्या विचार हैं। तो उन्होंने एक उम्मीदवार चुना है जिसका नाम बांसुरी स्वराज है। तो  क्या मेरा सवाल और मेरी मेहनत रंग ला रहे हैं? शायद। लेकिन अभी दिल्ली बहुत दूर है। न तो मेरे सवाल का जवाब पूरा होता है और न ही अन्य उभरते सवालों के जवाब मिलते हैं।
         वैसे मैडम बांसुरी स्वराज दिल्ली से चुनाव लडेंगी ओर उन्हें केंद्रीय मंत्री मीनाक्षी लेखीजी की जगह मिली है। वैसे पता नहीं ये कहाँ की हैं! (इसे पर्सनल न लें, व्यंग्य मात्र अपने विचार कहने के लिए हैं)।
         तो क्या बीजेपी प्रमुख मूलवासियों को बाहर करके बाहरी लोगों को सुदृढ़ कर रही है? क्या मोदीजी वोटों के बल (जिसमें कई बाहरी बहरूपिये हिन्दू रूप में और अनेक प्रकार के मजबूर हिन्दू मूलनिवासी हैं) पर 'स्वराज के युवराज' (और भावी राजा) को अनदेखा करने या दबाने की सोच चला रहे हैं? या फिर Indiya-Pakisthaan के बँटवारे के नाम पर अलग-अलग देशवासी बनकर और बतलाकर चैन से बंसी बजाना चाहते हैं?
        सवाल अनेक हैं और पर्-राज के लिए India एक था तो स्वराज के लिए भी इंडिया एक ही होता है। मगर पर्-राज के कार्यकर्ताओं को स्वराज से निष्कासित होना होता है। वो भी  बगैर बल प्रयोग के, किसी भी प्रकार के बल प्रयोग के। क्या स्वराज के हक लेते समय हम अलग-अलग राजा-रजवाडों के (1947 में 500 से अधिक अंग्रेजों से समर्थित रजवाड़े थे!) कलह और इच्छाओं को धर्मसंगत मान सकते हैं? क्या पराधीन या निजी स्वार्थ साधने या प्रतियोगिता के प्रयास किये जा सकते हैं? संक्षिप्त में, क्या जो 1947 में हो रहा था वही पुनः होने लगा है? 
         वैसे मैं किसी राजनीतिक दल के पक्ष-विपक्ष का नहीं हूँ लेकिन स्वराज से देशहित है और 'युवराज ही स्वराज का' बंसी बजईया होवत है। तो फिर हम  इतने सालों से क्या खोवत हैं? 'स्वराज' क्यों नहीं करते? वैसे मैं मोदीजी के 10 साल का विश्लेषण नहीं कर रहा हूँ लेकिन मोदीजी ने विकास कराया है तो स्वराज का धन कहाँ है? और कुछेक कर्मठ मूलनिवासियों का धन कहाँ है? कहीं ऐसा तो नहीं कि उनका धन ब्लैक मनी बता कर विदेशी ताकतें गबन करके अपने कार्यकर्ताओं को उपलब्ध कराती हैं। क्या यह स्वराज-संगत है? 
        औह! शायद मैं राजनीति में भी सफल हो जाऊँ। अपने सुझाव अवश्य दें।  IPYadav

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